रंगदूत

Sunday, 18 March 2018

एक मुकम्मल प्रस्तुति: भँवरा बड़ा नादान

'भँवरा बड़ा नादान' नाटक का मंचन मैंने पहली बार उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जनपद में देखा। नवोन्मेष नाट्य उत्सव 2017 हेतु सात विभिन्न प्रदेशों से चुने गए सात चुनिंदा नाटकों में से एक था 'भँवरा बड़ा नादान'। श्री प्रसन्न सोनी जी द्वारा लिखित एवं निर्देशित इस नाटक के हैंगओवर से अब तक नहीं निकल पाया हूँ। अति सीमित संसाधन एवं चुनिंदा रंगकर्मियों के अभिनय से रंगे इस नाटक का आकर्षण इतना करिश्माई था कि मंचन के उपरांत देर तक पूरा प्रेक्षागृह तालियों की ध्वनि से गूँजता रहा। लेखन, निर्देशन, अभिनय, संगीत, प्रकाश आदि सबकुछ इतना उम्दा था कि दर्शकों ने इस नाटक को नवोन्मेष नाट्य उत्सव में मंचित श्रेष्ठतम् नाटकों की सूची में रखा। ये नाटक इस मायने में भी सिद्धार्थनगर के लिए यादगार रहा कि देश के विभिन्न प्रदेशों के 70 आई.ए.एस, आई.पी.एस एवं आई.एफ.एस ऑफिसर्स इस नाटक के साक्षी बने और सभी ने इसके सशक्त प्रस्तुति की खुले कंठ से प्रशंसा की।
मुझे हार्दिक ख़ुशी है कि श्री प्रसन्न सोनी जी द्वारा लिखित ये नाटक अब मुकम्मल किताब की शक्ल ले चुका है। शिवना प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस नाटक का बाहरी आवरण देखा तो पुनः इस नाटक से जुड़ी अनेक स्मृतियाँ जीवंत हो उठी। प्रसन्न सोनी जी के साथ ही सुनील उपाध्याय जी, भारती सोनी जी, ख़ुशी राजपूत जी, कुंदन रॉय जी समेत रंगदूत समूह के उन सभी साथियों को बधाई जो इस नाटक का अंग हैं। मैं पूर्णतः आश्वस्त हूँ कि प्रतिभा, ऊर्जा एवं असीमित संभावनाओं से भरी ये टोली इस नाटक को भारत के समस्त प्रतिष्ठित मंच तक पहुँचाएगी।
मृदुभाषी एवं सरल व्यक्तित्व के धनी श्री प्रसन्न सोनी जी मध्य प्रदेश के सीधी जनपद में रंगमंच की जो अलख जगाये हुए हैं वो अनुकरणीय है। नाटक को पुस्तक का आकार मिलने पर आपको बधाई। ये यात्रा यूँ ही रोचक बानी रहे यही शुभेक्षा है।



Tuesday, 2 January 2018

सम्बन्धों को शंकाओं से सचेत करता नाटक : भँवरा बड़ा नादान

उनका कहना है, “सोचा नहीं था, कभी नाटक लिखूँगा| सोचा तो ये भी नहीं था कि नाटक करूँगा| बचपन से एक रुझान था, विद्यालय में शिक्षकों ने बलात नाटक करने के लिए धकेल दिया, और वहीं से सिलसिला चल पड़ा|” ये कथन किसी बहुत बड़े चित्रपट-सितारे, लेखक या कुख्यात व्यक्ति के नहीं हैं, वरन सीधी में विगत कई वर्षों से रंगमंच में सक्रिय रंगकर्मी ‘प्रसन्न सोनी’ के हैं| प्रसन्न न मात्र सीधी में बल्कि भोपाल, दिल्ली में रहकर भी रंगमंच कर चुके हैं, और करते रहते है| उनकी अभिनय क्षमता का बड़े-बड़े रंगकर्मियों ने लोहा माना है| रंगमंच में अभिनय और निर्देशन के साथ-साथ प्रसन्न भी लिखते हैं| 
उन्होंने नाटक लिखा है, उसके कई मंचन भी हो चुके हैं, और अब वह नाटक पुस्तक बन चुका है, यह पुस्तक पाठकों के लिए आगामी 6 जनवरी, 2018 से दिल्ली प्रगति मैदान में, विश्व पुस्तक मेले में शिवना प्रकाशन के विक्रय केन्द्र पर उपलब्ध होने वाली है|
पुस्तक का नाम अभी तक नहीं बताया? अवश्य ही पाठकों में इसकी जिज्ञासा भी होगी| उसका नाम भी बताया जाएगा, किन्तु उससे पूर्व यह जाना जाय कि नाटक है किस विषय पर, और वह हिन्दी रंगमंच के लिए महत्वपूर्ण क्यों होगी?
कई लोग सोचते हैं, “हमें कोई अच्छा-सा काम मिल जाय, अच्छा वेतन मिलने लगे, विवाह हो जाय, एक अपना व्यक्तिगत घर-बंगला हो, अपनी गाड़ी हो जीवन सुख से कट जाएगा|” प्रसन्न का नाटक इसी अतिहर्षिता में जीने वालों को सचेत करता है|
चलिए विषय को अधिक रहस्य न बनाते हुए, नाटक का नाम उद्घोषित कर दिया जाय| तो पाठक जनों नाटक का नाम है ‘भँवरा बड़ा नादान’| ‘भँवरा बड़ा नादान’ कहानी है एक ऐसे व्यक्ति (शंकरन गुरु) की; जो छोटे से संघर्ष के बाद, चित्रपट जगत का एक महान व्यक्तित्व बन चुका है| स्वयं बहुत-बड़ा निर्माता-निर्देशक है| जिसके निर्देशन में आनन्द जैसे सितारा अभिनेता भी काम करना बड़ी बात मानते हैं| शंकरन की प्रेमिका, बाद में पत्नी मीता भी फ़िल्म जगत की सितारा गायिका एवं अभिनेत्री हैं| शंकरन गुरु के पास जब्बार जैसा बहुमुखी प्रतिभा का धनी सहयोगी है, और अमोल मित्र जैसे लेखक और परामर्शदाता| शंकरन और मीता विवाह कर लेते हैं, और दोनों का जीवन अत्यन्त सुखमय बीतता है, उनकी एक बच्ची भी हो चुकी है| फिर अचानक शकरन गुरु और मीता के सम्बन्धों में खिंचाव आने लगता है| उनके मध्य बढ़ने वाली दूरी का कारण क्या है? इस खिंचाव का अन्त कैसे होता है? यही जानने के लिए ‘भँवरा बड़ा नादान’ पढ़ने की आवश्यकता है|
नाटक में कहानी के साथ-साथ उसकी नाटकीयता, उसके सम्वाद, चारित्रिक विश्लेषण का अद्भुत समागम है| उसका एक-एक सम्वाद पाठक को सोचने पर विवश करता है| जैसे-“पता है रतन! जो शक दिमाग में एक बार पनप जाता है, वो साँप जैसा होता है| मौका पाते ही डस लेता है| फिर? फिर इंसान का अंग-अंग शिथिल हो जाता है| जैसे-जैसे ज़हर फैलता है, इंसान कमज़ोर और विवश हो जाता है|” यह सम्वाद जहाँ जीवन के लिए उपदेश भी देता है, वहीं व्यक्ति को परस्पर शंका जैसी बीमारी से बचने के लिए सचेत भी करता है| नाटक में चरित्रों में विविधता, उनमें भाव-प्रवणता निर्देशक व अभिनेताओं को मंच पर उतारने के लिए कई कौशल विकसित करते है| हिन्दी भाषा में सहस्त्रों नाटक लिखे गये हैं, उतनों का ही विदेशी भाषा से अनुवाद किया गया है, ऐसी भीड़ में भी ‘भँवरा बड़ा नादान’ रंगमंच के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगा| यह कैसे उपयोगी होगा, इसका निर्णय एकमात्र कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता, बल्कि कई पाठकों एवं रंगकर्मियों के माध्यम से होगा|
लगता है लिखने से अधिक श्रेष्ठ होगा कि पाठक एवं रंगकर्मी जन स्वयं पुस्तक लेवें, पढ़ें और अपनी समझ बनाएँ|




Saturday, 30 December 2017

रंगदूत

आदित्य वर्मा 'राज'
बेरंग दुनिया में रंग भर दे
अनायास की चुप्पी को भंग कर दे
अगणित आत्मभावनाओं को
छू ले जो साँझ-सवेरे को
जी ले एक पल में जीवन के हर झरोखे को
पी ले जो आँखों की अश्रु धाराओं को
जी ले जो जीवन के हर आभाव में
करा दे परिचय मनुष्य का हर भाव से
जो जीता है हर पल हर क्षण को
हो चाहे वह खुश या दुखी
भर दे जो स्वप्न रचित पात्रों में भी प्राण
जिसकी सीमाएँ हों अनन्त आसमान
हैं जिसमें सभी रस विद्यमान
होती है रंगवर्षा जब हो उसका आगमन
वह एक होकर भी खुद में है अनेक
न वो कोई इन्द्रजाली, न वो देवदूत
आत्मा को आत्मा से बाँध दे ऐसा है वो सूत
स्वप्न को साकार कर दे वो है रंगदूत


Sunday, 24 December 2017

चोर नहीं, वह माँ थी...

रोशन अवधिया 

अभी-अभी ही लोगों ने राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर
'मातृ दिवस' के कार्यक्रम का बड़े ही भव्य तरीके से सम्पन्न किया था, और मुझे अख़बार में आज ये खबर पढ़ने को मिल गई।  ख़बर पढ़ के मुझे कुछ समझ

नहीं आ रहा था कि क्या मैं उसी देश की ख़बर पढ़ रहा हूँ, जहाँ लोग नारी को 'शक्ति' का प्रतीक मानते है? नारी के हर रूप को इस देश मे इज्ज़त मिली है; लेकिन मुझे आज बहुत अजीब लगा,  मैं अन्दर से अपने आप को कोस रहा था। कल मेरे हाथों में उसी औरत की लाश थी, जिसका ज़िक्र आज अखबार का पहला पन्ना कर रहा था। ख़बर थी कि एक औरत को किसी आदमी द्वारा जिला-अस्पताल में भर्ती कराया गया, और उसी समय उस औरत की मौत हो गई। सूत्रों के मुताबित पता चला है कि वो औरत घायल अवस्था मे बस स्टैंड में पाई गई। लोगों ने बताया कि वो औरत वहाँ आस-पास की दुकानों में चोरी करते पकड़ी गई, और स्थानीय लोगों द्वारा हिंसात्मक तरीके से उसकी पिटाई कर दी गई, जिस कारण उसकी मृत्यु हो गई।
मुझे अभी भी याद है कि उस औरत ने मुझे बेटा कहा था, और वो बार-बार यही बोल रही थी “बेटा मुझे बचा ले, मेरे घर में मेरे बच्चें भूखे है...... ।” फिर अचानक उसकी आवाज़ किहीं गुम हो गई। मैं कुछ नहीं कर सका, सिर्फ उसकी एक बात मेरे दिल-ओ-दिमाग को बार-बार यही चोट पहुँचा रही थी कि उसने सिर्फ अपने भूखे बच्चों के लिए चोरी की थी। एक माँ द्वारा अपने बच्चों की भूख मिटाने में की गई चोरी में अगर उसको मौत मिली, तो फिर उनको क्यों नहीं मौत मिलती, जो करोड़ो बच्चों को भूखा रख कर अपने फ़ायदे के लिए देश मे चोरी कर रहे हैं। जब भीड़ उस बूढ़ी औरत को पीट रही थी, तो सभी को ये पता था कि वो औरत है, लेकिन उस भीड़ में किसी भी इंसान को उस औरत में अपनी माँ नजर नहीं आई। अरे! कठोर दिल इंसान उस औरत के ऊपर हाथ उठाने पर तेरे हाथ नहीं काँपे?
अब इस खबर को पढ़ कर सभी को ये यक़ीन हो गया कि वो बूढ़ी औरत सच मे चोर थी। लेकिन मेरा दिल, मेरा दिमाग मुझसे यही बोल रहा था कि तू जा के सबसे बोल दे कि.....“वो चोर नहीं, वो तो माँ थी"।
आजमा कर देखा जब जग में औरत कब बनती महान है,

भगवान से भी वो लड़ सकती इतनी प्यारी सन्तान है।"

Saturday, 23 December 2017

एक नया ‘आनन्द रघुनन्दन’ : संगम पाण्डेय

संगम पाण्डेय (प्रसिद्द नाट्य समीक्षक)
जिस नाटक ‘आनन्द रघुनन्दन’ को वरिष्ठ संजय उपाध्याय निर्देशित कर चुके हैं, उसे ही अब युवा रंगकर्मी प्रसन्न सोनी ने भी निर्देशित किया है। लेकिन कोई सोचे कि ये दो प्रस्तुतियाँ सिर्फ वरिष्ठता और कनिष्ठता के फासले से ही एक-दूसरे से जुदा होंगी, तो यह उसकी गलती है। ये दो प्रस्तुतियाँ साधनसंपन्नता और साधनहीनता की दो दुनियाएँ भी हैं।
यह संयोग ही था कि जिस रोज सीधी के मानस भवन में मुझे यह नाटक देखना था, उसी रोज महिला सशक्तीकरण दिवस भी पड़ गया। सरकारी बाबू ने आयोजन स्थल एक साथ दो संस्थाओं को एलॉट कर दिया, और ऐसा करने को गलती मानने के बजाय, अपना अधिकार बताते हुए एक रोज पहले लगाई मंच-सज्जा वगैरह को उखाड़ फेंका। दरअसल वहाँ महिला सशक्तीकरण के कार्यक्रम में प्रधानमंत्री का लाइव सन्देश दिखाया जाना था।
अन्ततः हॉल मिलने और सारी व्यवस्थाओं को पुनः अंजाम देने में नाटक के वक्त को करीब सवा घंटा आगे खिसकाना पड़ा। और यह हॉल क्या है- जमीन से एक फीट उठा हुआ कांक्रीट का एक स्टेज है, जिसे लकड़ी के करीब दो-दो फुट के ब्लॉक्स के जरिए आगे तक बढ़ाया गया है। और ये ब्लॉक्स भी ग्रुप की अपनी प्रॉपर्टी का हिस्सा हैं, न कि प्रशासन का कोई सहयोग। न कोई विंग्स है न बैकस्टेज। इसके लिए आनन-फानन में लगाए बेतरतीब परदे नजर की आड़ से ज्यादा कुछ नहीं थे।
चूँकि स्टेज काफी नीचा है इसलिए कुर्सियों की बजाय गद्दों पर बैठना ज्यादा मुफीद है, सो उसी तरह जूते पहने घुटने मोड़कर बैठे। वैसे रामलीला के पुराने दिनों की याद करते हुए, यह कोई बुरा अनुभव नहीं था।
प्रसन्न सोनी की प्रस्तुति डेढ़ घन्टे लम्बी है। उनके ज्यादातर अभिनेता अभी-अभी युवा हुए लोग हैं, जिन्हें एक बात की सुविधा थी कि उन्हें अपनी ही भाषा बघेली में सम्वाद बोलने थे। खुद प्रसन्न एनएसडी की घुमन्तू रेपेटरी में कई सालों तक काम कर चुके हैं। उनकी प्रस्तुति को ठेठ लोक-शैली की प्रस्तुति नहीं कहा जा सकता। बल्कि पात्रों के कास्ट्यूम और प्रकाश योजना के जरिए वे स्थितियों को काफी चाक्षुष बनाने की कोशिश करते हैं। यह कोशिश इस हद तक भी है कि उन्होंने अपने पात्रों के चेहरे मुखौटों से ढँक दिए हैं। चेहरों को ढँक देने का अर्थ है मौखिक भंगिमाओं को ढँक देना। इसके बाद वे जड़वत चेहरों को संगीत से जीवन्त करते हैं। उनकी प्रस्तुति अच्छी खासी म्यूजिकल है। अभिषेक त्रिपाठी के संयोजन में तैयार बहुत सारी लोकधुनें निरन्तर प्रस्तुति में सुनाई देती हैं। वैसे बावजूद इसके कि मुखौटे अभिनय के स्पेस को कम करते हैं, कुछ दृश्यों में अभिनेताओं ने अपनी एनर्जी का अच्छा इस्तेमाल किया है। शूर्पणखा बनी अभिनेत्री का हाहाकार उसके शारीरिक अभिनय में देखने लायक था। दरअसल इस प्रस्तुति की विशेषता या द्वंद्व यही है कि वह एक कस्बे की साधनहीनता में महानगरीय परिपाक को सम्भव करने की चेष्टा करती है। उसका दिकसिर यानी रावण जब लक्ष्मण रेखा को छूता है, तो एक तीखी प्रकाश योजना क्षण भर की कौंध में मंच पर गिरती है, और रावण को जोर का करेंट जैसा लगता है। फिर महिजा यानी सीता को उठाकर ले जाने वाले दृश्य में पूरा मंच लाल रोशनी में नहाया हुआ है। यह जालंधर से आए गुरविंदर सिंह की प्रकाश योजना थी। इसी तरह हनुमानजी उर्फ त्रेतामल टोकरियों से बनी गदा लिए दिखाई देते हैं। दृश्यों में दिखाई देने वाली लोकजीवन की ऐसी कई वस्तुएँ प्रस्तुति को एक अलग ही रंगत देती हैं। प्रसन्न की यह प्रस्तुति ऐसी ही बहुविध किस्म की दृश्य योजनाओं का एक दिलचस्प संयोजन है। हालाँकि मुखौटों के बारे में उन्हें अवश्य ही विचार करना चाहिए कि अभिनय में बाधा खड़ी करने के बरक्स क्या वे शैलीगत प्रभाव बना भी पा रहे हैं या नहीं! उनकी यह प्रस्तुति साधनों की सीमा का अतिक्रमण करते हुए बहुत कुछ ऐसा रचती है, जिसमें एक चुस्ती भी है, और औघड़पन भी। प्रस्तुति में औपचारिक मंच सज्जा ज्यादा नहीं है। मुख्य स्पेस में तीन चौकियाँ भर हैं, जिन्हें जरूरत के मुताबिक पहाड़ या सिंहासन के रूप में बरता जाता है। इनके अलावा हर दृश्य का एक अलग ही दृश्य विधान है।



Thursday, 21 December 2017

RangYatra : AnandRaghunandan

Gurwinder Singh (Light Designer of Anand Raghunandan 
Life is wonderful when S(HE) starts blessing you to live your passion. These days the same is happening to me. Anand Raghunandan chapter of my RangYatra started when all of a sudden one day I received a call from Mr. Prasanna Soni from Sidhi Madhya Pradesh asking me to handle the lights for his upcoming production. As I had already seen his work during his visit to Jalandhar, it took me no longer to say yes. I could recall Sidhi quite well because of my last visit which was too about theater. Reaching there I was taken to room by Mr. Ravi Shankar Bharti a veteran actor of Rangdoot and pass out from M.P. School of Drama. There after the very same day I met my friend Mr. Neeraj Kunder Sidhi, role model for many of the building theater activists’ across the country. He took me to his office where we had a cup of tea with Mr. Shiv Shankar Mishra Saras and discussed about theater and existence of God Vs Knowledge. I can not afford to mention Gangotri Restaurant and his owner Mr. Satish Gupta, who seems to have paid a significant contribution towards theater in Sidhi. At the stroke of midnight when the whole world was sleeping, the much awaited Mr. Sugriv Vishwakarma, with whom I was requested to share room entered. He made all the beautiful props and creative masks for the play. This was the second person of the production I met. I found him so committed to his work and image, and yet so down to earth. Interacting him made me feel glad and seeing his work made me feel honored. He is such master of his craft after Dr. Satyabrata Rout. 
Diksir is kidnapping to Mahuja in the play Anand Raghunandan

Attending the first rehearsal I happen to meet the other master, the master of melody, the composer, the arranger, the man behind the sound of the play Dr. Abhishek Tripathi from Rewa. Listing to his compositions I felt perhaps Ramayna must have had originally happened in Bagheli. Outstanding compositions by an outstanding composer...Bravo... Here I must mention yet another legendary person, who was consistently present as a strong pillar of the production Mr. Ashok Tiwari. He kept guiding everyone right in time to be precise and appropriate. Every creative process need some break to refresh-n-up and this task was well taken care by Mr. Dhruv who was always there when we felt exhausted and need some break. His hospitality and surprise party at MaadaPani was a memorable trip. During the rehearsals the acting part was well taken care by Mrs. Bharti Sharma Soni. Besides being just better half she was a real asset for the production. Complimenting the acting and music the well designed choreographies in folk style were prepared by renowned Mr. Pravin Nageshwar from Balaghat. The play was supposed to be staged in Manas Bhawan on 7th and 8th March.

The Artist of Rangdoot are performing the play Anand Raghunandan 
As I quite often use the phrase “नाटक वालों के साथ नाटक नहीं होगा, तो फिर और किस के साथ होगा” it did happen with Mr. Prasanna Soni too when,
1. The Municipal Council uprooted the whole road in front of the venue on the show day
2. The authorities refused to cooperate about the stage light settings one night before the show day.
3. The local administration occupied the venue for the whole day for some local event in-spite of the official booking for the play.
4. The ATMs and banks refused to give money due to strike for the whole week.
But

फलक को ज़िद है जहाँ बिजलियाँ गिराने की,
हमारी भी ज़िद है वहीँ आशियाँ बनाने की...

Mr. Prasanna Soni (Team Rangdoot Sidhi) managed to conduct two consecutive shows of Anand Raghunandan one after another.
It was honour to have Mr. Sangam Pandey, renowned theater critic from Delhi in the audience. The entire show went off well. Way back got a chance to visit the White Tiger Safari at Rewa; Tulsi Ghat, Assi Ghat, Kashi-Vishwnath, Kaal Bhairav, Saarnath at Banaras; take bath in Sangam at Prayag and meet an old friend and theater scholar Mr. Pankaj Pandey. RangYatra chapter Anand Raghunandan ends on Holi at Jalandhar. Thanks Mr. Prasanna Soni and entire team Rangdoot Sidhi for choosing me to be a part of this epic production.

आनन्दरघुनन्दन : नाट्य प्रक्रिया का अनुभव

बात उस दिन की है, जब मैं और अनन्त घर पर बैठ कर ‘शतरंज' खेल रहे थेतभी प्रसन्न सर (रंगदूत के सचिव व हमारे नाट्य निर्देशक) का फ़ोन आया ,'रोशन कहाँ हो, फ़ोन क्यों नहीं उठा रहे हो, मैं ने तीन-चार लगाया।“

रोशन अवधिया (कलाकार रंगदूत)

मैंने अविलम्ब अपनी व्यस्तता और फोन के चार्ज पर होने का हवाला दिया, इसके बाद उनसे चर्चा हुई| चर्चा का निष्कर्ष निकला कि शाम को उनसे भेंट करनी थी| अनन्त को शाम को मिलने के लिए कह कर हमने शतरंज का खेल उस समय के लिए ख़त्म किया|
 अभी मेरी और प्रसन्न सर के साथ बहुत घनिष्ठता नहीं थी, मात्र एक नाटक ‘सैयां भये कोतवाल’ ही उनके साथ किया था, ऐसे में अचानक मिलने की बात मुझे समझ नहीं आ रही थी| अभी मैं उनके साथ बहुत खुल भी नहीं पाया था, और डरता भी बहुत था| खैर दोपहर का खाना खाया, और सीधे पढ़ाई चालू कर दी| एक बात यह कि पढ़ने का बहुत शौक़ीन टी नहीं हूँ, लेकिन 12वीं कक्षा में पढ़ता हूँ, बोर्ड की परीक्षा होती है, और अधिक तो नहीं पर सोच रहा था कि इस भागमभाग भरे समय में यदि 80% भी बन जाते तो जीवन सफल हो जाता| और किताबें भी अभी ही कुछ दिन पहले ही ख़रीदी थीं, जनवरी और फ़रवरी दो ही महीने बचे थे, और एक मार्च से ही परीक्षा की तिथि निर्धारित थी, अतः पढ़ना ज़रूरी भी था|
शाम के 5:00 बजे मैं और अनन्त सीधे पूजा पार्क (सीधी का धार्मिक, एवं पवित्र स्थल जहाँ बहुत सारे मन्दिर हैं) में जा पहुँचे। जैसे ही ऑटो से उतार कर हम लोग 'मानस भवन' (पूजा पार्क के ठीक सामने स्थित है, शहर की अधिकतर सांस्कृतिक गतिविधियाँ यहीं होती हैं, और हमारी नाट्य प्रस्तुतियाँ भी|) पहुँचे| अन्दर पहुँचे ही थे कि एक जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई दी, “ऐ लड़कों! इधर आ जाओ|” ये आवाज थी श्री अशोक तिवारी सर (वरिष्ठ रंगकर्मी एवं सीधी प्रथम रंगगुरु) की। हम लोग पार्क में बैठ गए और फिर शुरुआत हुई काम की बातों की।
प्रसन्न सर ने बताया कि वो एक बड़ा नाटक हम लोगों के साथ करने जा रहे है, जिसका नाम  ‘आनन्द रघुनन्दन’ है। उन्होंने बताया कि ये नाटक पहले 'मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय, भोपाल' ने खेला हैऔर अब इसको  रंगदूत के सभी कलाकारों को खेलना है। साथ ही चर्चा में नाटक के बारे में बड़े ही विस्तार से हम लोगों को जानकारी भी प्रदान की| सर ने ये भी बताया कि ‘आनन्दरघुनंदन’ रीवा नरेश ‘महाराज विश्वनाथ सिंह’ कृत एक नाटक है, जो हिन्दी नाट्य साहित्य की एक विशेष शृंखला है, और हिन्दी जगत् में इसे मान भी बहुत मिला है। अनेक विद्वानों ने इसे हिन्दी का प्रथम नाटक माना है। इसका कारण यह है कि इस नाटक में नान्दी, विष्कम्भक, भरत-वाक्य के साथ-साथ रंग-निर्देश भी प्रयुक्त हुए हैं, जो संस्कृत में दिये गये हैं। साथ ही ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है, और भाषा वैभिन्य भी है। इन्हीं कारणों से इसे हिन्दी का प्रथम नाटक माना गया है।”
सभी बातें सुनने के बाद अब यह निर्णय लिया जाना था कि इस नाटक की रिहर्सल कहाँ की जाए? प्रसन्न सर ने बाद में बताने के लिए कहकर इस दिन की सभा बर्खास्त की| चूँकि मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ता था, यह कक्षा बोर्ड की परीक्षा वाली होती है, और इसी कक्षा का परीक्षा परिणाम भविष्य का निर्धारण करता है, अतः मेरे घर से सख्त आदेश था 12वीं के पेपर के बाद नाटक-नौटंकी करना। लेकिन मैं भी बड़ा जिद्दी आदमी था, मैं ने कहा मैं करूँगा-तो-करूँगा। बस अब इन्तज़ार था तो प्रसन्न सर के फ़ोन का, लेकिन सर का फ़ोन नहीं आया। मेरे भीतर नाटक को लेकर इतनी हलचल मची हुई थी कि धैर्य ही नहीं हो रहा था, अतः मैंने ही फ़ोन करके पूछा, “सर क्या हुआ, वो आप का फोन नहीं आया, तो मैंने सोचा ख़ुद ही कॉल कर लूँ।” सर का जबाब आया. “जल्द ही बताता हूँ|”
मेरे भीतर का धैर्य बिलकुल ही जवाब दे गया था, मैंने इस नाटक की चर्चा अपने दोस्तों से करना प्रारम्भ कर दिया|  भाई बड़ा उत्साह था। नाटक के रिहर्सल के लिए अदद स्थान की चिन्ता मुझे भी थी, इसीलिए मैंने अपने बड़े भाई 'देवेंद्र सोनी' से चर्चा की| वो भी पुराने कलाकार हैं, उन्होंने सारी बातें सुनने के बाद बोला कि मेरे ऑफिस वाले हॉल में रिहर्सल कर लो तुम लोग, इसी बहाने में भी नाटक कर लूँगा। बस अन्धे को क्या चाहिए दो आँखें, मैंने हाँ कर दिया, और सीधे प्रसन्न सर को कॉल किया, और जगह के बारे में बताया|  उन्होंने भी स्थान के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। अब क्या,  अब तो बस इन्तज़ार का अगले दिन का।
नाटक आनन्द रघुनन्दन में नट की भूमिका में रोशन अवधिया, दाहिने नटी पूनम दहिया, एवं नीचे विदूषिका मीना गुप्ता  
अगला दिन, अर्थात मंगलवार के दिन प्रसन्न सर के आदेशानुसार मैंने सभी दोस्तों और पुराने लोगों को एसएमएस करके हॉल में बुला लिया। अब काम हो गया चालू। मज़ेदार बात यह हुई कि शुरुआत में नाटक के लिए करीब 60 नए बच्चे आए, और फिर सर के द्वारा नाटक को ले कर तैयारी चालू हो गई। उससे भी अधिक मज़ेदार बात यह हुई कि 6-7 दिनों बाद हम 60 लोगों का यह जत्था धीरे-धीरे 20 पर जा पहुँचा। सर ने कहा कि ये 20 लड़के ही 'आनन्दरघुनन्दन' करने के लिए तैयार हैं। क्योंकि नाटक शुरु करने से पहले ही सर ने सीन वर्क,  बहुत सारी एक्सरसाइजेज़, गीत-संगीत और बॉडी मूवमेंट करवा दिया था। जो लोग ये सोच कर आए थे कि स्कूल के नाटकों की तरह थिएटर भी है, वो जल्द ही अपने-अपने घर की ओर निकल गए। रंगकर्म करना इतना भी आसान नहीं है, जितना लोग समझते है। रंगकर्म एक साधना है, और इसकी साधना बहुत कठिन है, लेकिन असम्भव नहीं। अब नाटक की स्क्रिप्ट रिडिंग का समय आ गया, सर ने सभी को स्क्रिप्ट पढ़ने को दी। 'श्री योगेश त्रिपाठी 'द्वारा इसका बघेली में अनुवाद किया गया है। हम लोगों के लिए ये बहुत ही अच्छा था कि नाटक हमे बघेली बोली में करना है। अब धीरे-धीरे नाटक की शुरुआत हो चुकी थी, प्रसन्न सर ने सभी को रोल भी बाँट दिए। मुझे नाटक में नट, त्रेतामल, भुवनहित, जगजोनिज का किरदार करने का मौका मिला।
तैयारी चल ही रही थीं कि इसी दौरान सर ने हम लोगों को बताया कि हम लोग 'मुखौटे' के साथ अपना अभिनय करेंगें, जिसके लिए आजमगढ़ से 'श्री सुग्रीव विश्वकर्मा' सर को बुलवाया गया। अब नाटक की तैयारी लगभग हो ही गई थी। सम्वाद और अभिनय को लेकर प्रसन्न सर ने हम लोगों को नाटक के अनुरूप ढाल दिया था। जनवरी पूरी बीत गई, और फ़रवरी का यह अन्तिम सप्ताह था, इसी बीच नृत्य सरंचना हेतु बालाघाट जबलपुर से 'श्री प्रवीण नागेश्वर' सर को बुलवाया गया। अब मुखौटे और नृत्य के बाद नम्बर था संगीत का, जिसके लिए रीवा से 'श्री अभिषेक त्रिपाठी' और संगीत संयोजन हेतु 'श्री अतुल सिंह' सर का आगमन हुआ।
नाटक आनन्दरघुनन्दन में त्रेतामल के रूप में रोशन अवधिया 
अब मंचन की तारीख नज़दीक आ रही थी और हम दो लोगों सुनील और मेरे वार्षिक परीक्षा की तारीख़ भी। एक मार्च को मेरा और सुनील का हिंदी का पेपर था, और 6 मार्च को इंग्लिश का। हमारे नाटक की दो प्रस्तुतियाँ होनी सुनिश्चित हुईं। पहली 6 मार्च को, और दूसरी 7 मार्च को। विशेष बात यह कि 6 मार्च को हमारे अंग्रेज़ी की परीक्षा भी थी| सभी कलाकारों में नाटक,  और उसके अच्छे प्रदर्शन को ले कर चिन्ता थी, परन्तु सुनील और मेरे लिए एक चिन्ता और जुड़ी थी वो थी पेपर की। लेकिन हम लोगों ने श्री राम का नाम लिया और 1 जनवरी के दिन हिंदी का पेपर दे कर सीधे रिहर्सल हेतु जा पहुँचे। और 6 मार्च के पेपर का कोई ध्यान ही नहीं रहा बस नाटक की रिहर्सल। मुझे स्टेज मैनेजर बनाया गया था जिस कारण मेरे ऊपर बहुत सी जिम्मेदारी थी। 4 मार्च शाम करीब 6:40 बजे सर ने बताया कि हमारे नाटक को देखने श्री संगम जी पाण्डेय (वरिष्ठ नाट्य समीक्षक) आ रहे हैं। यह हम सबके लिए ख़ुशी की बात थी।

अब समय आ गया था मंचन का, सुनील और मैं ने पेपर दिया और सीधे मंचन स्थल में पहुँचकर शाम की प्रस्तुति हेतु कार्य मे लग गया। 6 मार्च को शाम 7 बजे से हमारी प्रस्तुति थी, 6 बजे तक हम सभी कलाकार तैयार हो गए, और फिर 7 बजे हमारे नाटक का मंचन हुआ। इसी तरह अगले दिन अर्थात 7 मार्च को भी हमारी प्रस्तुति हुई। सीधी जिले के दर्शकों को ये प्रस्तुति बहुत पसन्द भी आई।


 

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