बात उस दिन की है, जब मैं और अनन्त घर पर बैठ कर ‘शतरंज' खेल
रहे थे, तभी
प्रसन्न सर (रंगदूत के सचिव व हमारे नाट्य निर्देशक) का फ़ोन आया ,'रोशन
कहाँ हो, फ़ोन क्यों नहीं उठा रहे हो, मैं
ने तीन-चार लगाया।“
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रोशन अवधिया (कलाकार रंगदूत)
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मैंने अविलम्ब अपनी व्यस्तता और फोन के चार्ज पर होने का हवाला दिया, इसके
बाद उनसे चर्चा हुई| चर्चा का निष्कर्ष निकला कि शाम को
उनसे भेंट करनी थी| अनन्त को शाम को मिलने के लिए कह कर
हमने शतरंज का खेल उस समय के लिए ख़त्म किया|
अभी मेरी और प्रसन्न सर के
साथ बहुत घनिष्ठता नहीं थी, मात्र एक नाटक ‘सैयां भये कोतवाल’ ही
उनके साथ किया था, ऐसे में अचानक मिलने की बात मुझे समझ
नहीं आ रही थी| अभी मैं उनके साथ बहुत खुल भी नहीं
पाया था, और डरता भी बहुत था| खैर
दोपहर का खाना खाया, और सीधे पढ़ाई चालू कर दी| एक
बात यह कि पढ़ने का बहुत शौक़ीन टी नहीं हूँ, लेकिन
12वीं कक्षा में पढ़ता हूँ, बोर्ड
की परीक्षा होती है, और अधिक तो नहीं पर सोच रहा था कि इस
भागमभाग भरे समय में यदि 80% भी बन जाते तो जीवन सफल हो जाता| और
किताबें भी अभी ही कुछ दिन पहले ही ख़रीदी थीं, जनवरी
और फ़रवरी दो ही महीने बचे थे, और एक मार्च से ही परीक्षा की तिथि
निर्धारित थी, अतः पढ़ना ज़रूरी भी था|
शाम के 5:00 बजे मैं और अनन्त सीधे पूजा पार्क
(सीधी का धार्मिक, एवं पवित्र स्थल जहाँ बहुत सारे मन्दिर
हैं) में जा पहुँचे। जैसे ही ऑटो से उतार कर हम लोग 'मानस
भवन' (पूजा पार्क के ठीक सामने स्थित है, शहर
की अधिकतर सांस्कृतिक गतिविधियाँ यहीं होती हैं, और
हमारी नाट्य प्रस्तुतियाँ भी|) पहुँचे| अन्दर
पहुँचे ही थे कि एक जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई दी, “ऐ
लड़कों! इधर आ जाओ|” ये आवाज थी श्री अशोक तिवारी सर (वरिष्ठ
रंगकर्मी एवं सीधी प्रथम रंगगुरु) की। हम लोग पार्क में बैठ गए और फिर शुरुआत हुई
काम की बातों की।
प्रसन्न सर ने बताया कि वो एक बड़ा नाटक हम लोगों के साथ करने जा रहे
है, जिसका नाम ‘आनन्द रघुनन्दन’
है। उन्होंने बताया कि ये नाटक पहले 'मध्यप्रदेश
नाट्य विद्यालय, भोपाल' ने
खेला है, और
अब इसको रंगदूत के सभी कलाकारों को खेलना
है। साथ ही चर्चा में नाटक के बारे में बड़े ही विस्तार से हम लोगों को जानकारी भी
प्रदान की| सर ने ये भी बताया कि ‘आनन्दरघुनंदन’
रीवा नरेश ‘महाराज विश्वनाथ सिंह’ कृत एक नाटक है, जो
हिन्दी नाट्य साहित्य की एक विशेष शृंखला है, और
हिन्दी जगत् में इसे मान भी बहुत मिला है। अनेक विद्वानों ने इसे हिन्दी का प्रथम
नाटक माना है। इसका कारण यह है कि इस नाटक में नान्दी, विष्कम्भक, भरत-वाक्य
के साथ-साथ रंग-निर्देश भी प्रयुक्त हुए हैं, जो
संस्कृत में दिये गये हैं। साथ ही ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है, और
भाषा वैभिन्य भी है। इन्हीं कारणों से इसे हिन्दी का प्रथम नाटक माना गया है।”
सभी बातें सुनने के बाद अब यह निर्णय लिया जाना था कि इस नाटक की
रिहर्सल कहाँ की जाए? प्रसन्न सर ने बाद में बताने के लिए
कहकर इस दिन की सभा बर्खास्त की| चूँकि मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ता था, यह कक्षा
बोर्ड की परीक्षा वाली होती है, और इसी कक्षा का परीक्षा परिणाम भविष्य का
निर्धारण करता है, अतः मेरे घर से सख्त आदेश था 12वीं
के पेपर के बाद नाटक-नौटंकी करना। लेकिन मैं भी बड़ा जिद्दी आदमी था, मैं
ने कहा मैं करूँगा-तो-करूँगा। बस अब इन्तज़ार था तो प्रसन्न सर के फ़ोन का, लेकिन
सर का फ़ोन नहीं आया। मेरे भीतर नाटक को लेकर इतनी हलचल मची हुई थी कि धैर्य ही
नहीं हो रहा था, अतः मैंने ही फ़ोन करके पूछा, “सर क्या हुआ, वो
आप का फोन नहीं आया, तो मैंने सोचा ख़ुद ही कॉल कर लूँ।” सर का जबाब आया. “जल्द ही
बताता हूँ|”
मेरे भीतर का धैर्य बिलकुल ही जवाब दे गया था, मैंने इस नाटक की
चर्चा अपने दोस्तों से करना प्रारम्भ कर दिया| भाई बड़ा उत्साह था। नाटक के रिहर्सल के
लिए अदद स्थान की चिन्ता मुझे भी थी, इसीलिए मैंने अपने बड़े भाई 'देवेंद्र
सोनी' से चर्चा की| वो भी पुराने कलाकार हैं, उन्होंने सारी बातें सुनने के
बाद बोला कि मेरे ऑफिस वाले हॉल में रिहर्सल कर लो तुम लोग, इसी
बहाने में भी नाटक कर लूँगा। बस अन्धे को क्या चाहिए दो आँखें, मैंने हाँ कर दिया,
और सीधे प्रसन्न सर को कॉल किया, और जगह के बारे में बताया| उन्होंने भी स्थान के लिए अपनी
स्वीकृति प्रदान कर दी। अब क्या, अब तो बस इन्तज़ार का अगले दिन का।
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नाटक आनन्द रघुनन्दन में नट की भूमिका में रोशन अवधिया, दाहिने नटी पूनम दहिया, एवं नीचे विदूषिका मीना गुप्ता |
अगला दिन, अर्थात मंगलवार के दिन प्रसन्न सर के आदेशानुसार मैंने सभी
दोस्तों और पुराने लोगों को एसएमएस करके
हॉल में बुला लिया। अब काम हो गया चालू। मज़ेदार बात यह हुई कि शुरुआत में नाटक के
लिए करीब 60 नए बच्चे आए, और फिर सर के द्वारा
नाटक को ले कर तैयारी चालू हो गई। उससे भी अधिक मज़ेदार बात यह हुई कि 6-7
दिनों बाद हम 60 लोगों का यह जत्था धीरे-धीरे 20 पर
जा पहुँचा। सर ने कहा कि ये 20 लड़के ही 'आनन्दरघुनन्दन' करने
के लिए तैयार हैं। क्योंकि नाटक शुरु करने से पहले ही सर ने सीन वर्क, बहुत सारी एक्सरसाइजेज़, गीत-संगीत
और बॉडी मूवमेंट करवा दिया था। जो लोग ये सोच कर आए थे कि स्कूल के नाटकों की तरह
थिएटर भी है, वो जल्द ही अपने-अपने घर की ओर निकल गए। रंगकर्म करना इतना भी आसान नहीं
है, जितना लोग समझते है। रंगकर्म एक साधना है, और
इसकी साधना बहुत कठिन है, लेकिन असम्भव नहीं। अब नाटक की
स्क्रिप्ट रिडिंग का समय आ गया, सर ने सभी को स्क्रिप्ट पढ़ने को दी। 'श्री
योगेश त्रिपाठी 'द्वारा इसका बघेली में अनुवाद किया गया
है। हम लोगों के लिए ये बहुत ही अच्छा था कि नाटक हमे बघेली बोली में करना है। अब
धीरे-धीरे नाटक की शुरुआत हो चुकी थी, प्रसन्न
सर ने सभी को रोल भी बाँट दिए। मुझे नाटक में नट, त्रेतामल, भुवनहित, जगजोनिज
का किरदार करने का मौका मिला।
तैयारी चल ही रही थीं कि इसी दौरान सर ने हम लोगों को बताया कि हम
लोग 'मुखौटे' के साथ अपना अभिनय करेंगें, जिसके
लिए आजमगढ़ से 'श्री सुग्रीव विश्वकर्मा' सर
को बुलवाया गया। अब नाटक की तैयारी लगभग हो ही गई थी। सम्वाद और अभिनय को लेकर
प्रसन्न सर ने हम लोगों को नाटक के अनुरूप ढाल दिया था। जनवरी पूरी बीत गई, और फ़रवरी
का यह अन्तिम सप्ताह था, इसी बीच नृत्य सरंचना हेतु बालाघाट जबलपुर से 'श्री
प्रवीण नागेश्वर' सर को बुलवाया गया। अब मुखौटे और नृत्य
के बाद नम्बर था संगीत का, जिसके लिए रीवा से 'श्री
अभिषेक त्रिपाठी' और संगीत संयोजन हेतु 'श्री
अतुल सिंह' सर का आगमन हुआ।
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नाटक आनन्दरघुनन्दन में त्रेतामल के रूप में रोशन अवधिया |
अब मंचन की तारीख नज़दीक आ रही थी और हम दो लोगों सुनील और मेरे
वार्षिक परीक्षा की तारीख़ भी। एक मार्च को मेरा और सुनील का हिंदी का पेपर था, और 6 मार्च
को इंग्लिश का। हमारे नाटक की दो प्रस्तुतियाँ होनी सुनिश्चित हुईं। पहली 6
मार्च को, और दूसरी 7 मार्च को। विशेष बात यह कि 6 मार्च को
हमारे अंग्रेज़ी की परीक्षा भी थी| सभी कलाकारों में नाटक, और उसके अच्छे प्रदर्शन को ले कर चिन्ता थी, परन्तु
सुनील और मेरे लिए एक चिन्ता और जुड़ी थी वो थी पेपर की। लेकिन हम लोगों ने श्री
राम का नाम लिया और 1 जनवरी के दिन हिंदी का पेपर दे कर
सीधे रिहर्सल हेतु जा पहुँचे। और 6
मार्च के पेपर का कोई ध्यान ही नहीं रहा बस नाटक की रिहर्सल। मुझे स्टेज मैनेजर
बनाया गया था जिस कारण मेरे ऊपर बहुत सी जिम्मेदारी थी। 4
मार्च शाम करीब 6:40 बजे सर ने बताया कि हमारे नाटक को
देखने श्री संगम जी पाण्डेय (वरिष्ठ नाट्य समीक्षक) आ रहे हैं। यह हम सबके लिए
ख़ुशी की बात थी।
अब समय आ गया था मंचन का, सुनील
और मैं ने पेपर दिया और सीधे मंचन स्थल में पहुँचकर शाम की प्रस्तुति हेतु कार्य
मे लग गया। 6 मार्च को शाम 7
बजे से हमारी प्रस्तुति थी, 6
बजे तक हम सभी कलाकार तैयार हो गए, और फिर 7
बजे हमारे नाटक का मंचन हुआ। इसी तरह अगले दिन अर्थात 7
मार्च को भी हमारी प्रस्तुति हुई। सीधी जिले के दर्शकों को ये प्रस्तुति बहुत
पसन्द भी आई।