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संगम पाण्डेय (प्रसिद्द नाट्य समीक्षक) |
जिस
नाटक ‘आनन्द रघुनन्दन’ को वरिष्ठ संजय उपाध्याय निर्देशित कर चुके हैं, उसे ही अब युवा रंगकर्मी प्रसन्न सोनी
ने भी निर्देशित किया है। लेकिन कोई सोचे कि ये दो प्रस्तुतियाँ सिर्फ वरिष्ठता और
कनिष्ठता के फासले से ही एक-दूसरे से जुदा होंगी, तो यह उसकी गलती है। ये दो
प्रस्तुतियाँ साधनसंपन्नता और साधनहीनता की दो दुनियाएँ भी हैं।
यह
संयोग ही था कि जिस रोज सीधी के मानस भवन में मुझे यह नाटक देखना था, उसी रोज
महिला सशक्तीकरण दिवस भी पड़ गया। सरकारी बाबू ने आयोजन स्थल एक साथ दो संस्थाओं
को एलॉट कर दिया,
और
ऐसा करने को गलती मानने के बजाय, अपना अधिकार बताते हुए एक रोज पहले लगाई
मंच-सज्जा वगैरह को उखाड़ फेंका। दरअसल वहाँ महिला सशक्तीकरण के कार्यक्रम में
प्रधानमंत्री का लाइव सन्देश दिखाया जाना था।
अन्ततः
हॉल मिलने और सारी व्यवस्थाओं को पुनः अंजाम देने में नाटक के वक्त को करीब सवा
घंटा आगे खिसकाना पड़ा। और यह हॉल क्या है- जमीन से एक फीट उठा हुआ कांक्रीट का एक
स्टेज है, जिसे लकड़ी के करीब दो-दो फुट के
ब्लॉक्स के जरिए आगे तक बढ़ाया गया है। और ये ब्लॉक्स भी ग्रुप की अपनी प्रॉपर्टी
का हिस्सा हैं, न कि प्रशासन का कोई सहयोग। न कोई विंग्स
है न बैकस्टेज। इसके लिए आनन-फानन में लगाए बेतरतीब परदे नजर की आड़ से ज्यादा कुछ
नहीं थे।
चूँकि
स्टेज काफी नीचा है इसलिए कुर्सियों की बजाय गद्दों पर बैठना ज्यादा मुफीद है, सो उसी तरह जूते पहने घुटने मोड़कर
बैठे। वैसे रामलीला के पुराने दिनों की याद करते हुए, यह कोई बुरा अनुभव नहीं था।
प्रसन्न
सोनी की प्रस्तुति डेढ़ घन्टे लम्बी है। उनके ज्यादातर अभिनेता अभी-अभी युवा हुए
लोग हैं, जिन्हें एक बात की सुविधा थी कि उन्हें
अपनी ही भाषा बघेली में सम्वाद बोलने थे। खुद प्रसन्न एनएसडी की घुमन्तू रेपेटरी में
कई सालों तक काम कर चुके हैं। उनकी प्रस्तुति को ठेठ लोक-शैली की प्रस्तुति नहीं
कहा जा सकता। बल्कि पात्रों के कास्ट्यूम और प्रकाश योजना के जरिए वे स्थितियों को
काफी चाक्षुष बनाने की कोशिश करते हैं। यह कोशिश इस हद तक भी है कि उन्होंने अपने
पात्रों के चेहरे मुखौटों से ढँक दिए हैं। चेहरों को ढँक देने का अर्थ है मौखिक
भंगिमाओं को ढँक देना। इसके बाद वे जड़वत चेहरों को संगीत से जीवन्त करते हैं।
उनकी प्रस्तुति अच्छी खासी म्यूजिकल है। अभिषेक त्रिपाठी के संयोजन में तैयार बहुत
सारी लोकधुनें निरन्तर प्रस्तुति में सुनाई देती हैं। वैसे बावजूद इसके कि मुखौटे
अभिनय के स्पेस को कम करते हैं, कुछ दृश्यों में अभिनेताओं ने अपनी एनर्जी का अच्छा इस्तेमाल किया
है। शूर्पणखा बनी अभिनेत्री का हाहाकार उसके शारीरिक अभिनय में देखने लायक था।
दरअसल इस प्रस्तुति की विशेषता या द्वंद्व यही है कि वह एक कस्बे की साधनहीनता में
महानगरीय परिपाक को सम्भव करने की चेष्टा करती है। उसका दिकसिर यानी रावण जब
लक्ष्मण रेखा को छूता है, तो एक तीखी प्रकाश योजना क्षण भर की कौंध में मंच पर
गिरती है, और रावण को जोर का करेंट जैसा लगता है।
फिर महिजा यानी सीता को उठाकर ले जाने वाले दृश्य में पूरा मंच लाल रोशनी में
नहाया हुआ है। यह जालंधर से आए गुरविंदर सिंह की प्रकाश योजना थी। इसी तरह
हनुमानजी उर्फ त्रेतामल टोकरियों से बनी गदा लिए दिखाई देते हैं। दृश्यों में
दिखाई देने वाली लोकजीवन की ऐसी कई वस्तुएँ प्रस्तुति को एक अलग ही रंगत देती हैं।
प्रसन्न की यह प्रस्तुति ऐसी ही बहुविध किस्म की दृश्य योजनाओं का एक दिलचस्प
संयोजन है। हालाँकि मुखौटों के बारे में उन्हें अवश्य ही विचार करना चाहिए कि
अभिनय में बाधा खड़ी करने के बरक्स क्या वे शैलीगत प्रभाव बना भी पा रहे हैं या
नहीं! उनकी यह प्रस्तुति साधनों की सीमा का अतिक्रमण करते हुए बहुत कुछ ऐसा रचती
है, जिसमें एक चुस्ती भी है, और औघड़पन भी। प्रस्तुति में औपचारिक मंच सज्जा
ज्यादा नहीं है। मुख्य स्पेस में तीन चौकियाँ भर हैं, जिन्हें जरूरत के मुताबिक पहाड़ या
सिंहासन के रूप में बरता जाता है। इनके अलावा हर दृश्य का एक अलग ही दृश्य विधान
है।
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