रंगदूत

Wednesday, 20 December 2017

द्रौपदी-चरित्र-चित्रण

द्रौपदी, यह नाम लेते या सुनते ही, एक अभिमानिनी, स्वाभिमानिनी, संघर्षशील, और दृढ़ प्रतिज्ञ-सा बिम्ब मनः पटल पर उभरता है। कृष्णा, जिसका सखा-लीला बिहारी कृष्ण, पति-स्वयं धर्म संस्थापक धर्मराज युधिष्ठिर, सर्वशक्तिमान और सर्वश्रेष्ठ गदाधर भीम, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन, सर्वसुन्दर अश्विनसंतति नकुल-सहदेव, सास-नितिशाली पृथा, पितृव्य-मृत्युंजय पितामह भीष्म, स्वयं पांचालराजकुमारी, कुरुराजवधु और इन्द्रप्रस्थ साम्राज्ञी होने के पश्चात् भी, समस्त जीवन दुखों और संघर्षों की आत्मसाती। संतानें होते हुए भी, निःसन्तान-जैसी पीड़ा। सर्वसुन्दरी, सर्वसुखयोगी होकर भी, निःश्रृंगार, कष्टभोगी जीवन। एक ऐसी स्त्री के चित्र पर दृष्टिपात होता है, जो पाँच पुरुषों में विभाजित होने के पश्चात् भी, अक्षतयौवना, सती और समभाव की प्रेमस्थली है।

समस्त महाभारत के नायक यदि कृष्ण हैं, तो नायिका द्रौपदी है। यहाँ एक विरोधाभास हो सकता है, कि नायक और नायिका तो वे ही होते हैं, जिनमें परस्पर प्रेम हो, और उसकी परिणति दाम्पत्य, फिर कृष्ण और कृष्णा नायक-नायिका कैसे हो सकते हैं? तो यहाँ सबसे महत्वपूर्ण बात है कि समस्त महाभारत में, द्रौपदी के सखा कृष्ण ही थे, जो आगे आए और उसके स्वयंवर में परास्त और क्रुद्ध राजाओं एवं पाण्डवों के मध्य युद्धोन्माद का अन्त करवाया। उसने अकेले ही इस सखा कृष्ण की सखि होकर इस अनोखे सम्बन्ध का आनन्द लिया। केवल वही थी इस पूरे महाकाव्य में जिसके पास कृष्ण को झिड़कने का अधिकार प्राप्त था।
समस्त कुरु सभा में, जब उसे निर्वस्त्र किया जा रहा था, तब उनसे पूर्णाधिकार से कृष्ण को स्वरक्षा हेतु पुकारा था और कहा था, “मेरा कोई पति नहीं‚ न ही पुत्र, न भाई‚ न पिता और यहाँ तक कि हे मधुसूदन! तुम भी मेरे नहीं हो। पश्चात् इसके भी तुम चार कारणों से मेरी रक्षा करने के लिए बाध्य हो। “मैं तुमसे संबन्धित हूँ‚ मैं प्रसिद्ध हूँ, मैं तुम्हारी सखि हूँ, और तुम सबके पालक हो।" इन वाक्यों से उसने अपने सखा को न मात्र प्रेरित किया, वरन उसने अपना भी महत्व बताया, सखा को उसके कर्तव्य, अधिकार और धर्म का भी स्मरण कराया।
अर्थात् द्रौपदी निःसन्देह बड़ी कुशाग्र बुद्धि थी अपने-आप में पूर्ण एकरूपा‚ वह कुरुवंश के बड़े और पूजनीय लोगों के पक्षपात पूर्ण अत्याचार के लिये झिड़कने से भी हिचकी नहीं। द्रौपदी समस्त प्रताड़ित नारियों का प्रतिनिधित्व करती है। उस सभा में विद्वानों के मध्य एक प्रश्न-गागर के रूप में थी, जिसने सबको निरुत्तर कर दिया था। द्रौपदी अपने अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक है, और साथ ही चिह्न है प्रतिशोध का। मेरी दृष्टि में आचार्य चाणक्य ने भी सम्भवतः प्रतिशोध के खुले केश का विचार द्रौपदी से ही पाया होगा, क्योंकि खुले केश जब बार-बार सामने दिखते होंगे, तो अपना अपमान, और अपमान के प्रतिशोध के लिए निश्चय और भी दृढ़ होता होगा।
द्रौपदी एक आत्मविश्वासी और साहसी स्त्री थी, जिसे यह पता था कि जयद्रथ हो, या कीचक यदि उसका अपमान करेंगे, तो वे अपने जीवन से हाथ धो बैठेंगे, और यही हुआ भी। जयद्रथ को अपमान के बदले युधिष्ठिर का दास बनना पड़ा, तो वहीं कीचक को भीमसेन के हाथों मरना पड़ा। द्रौपदी ऐसी स्त्री थी, जो स्त्री की पीड़ा को भी समझती थी, यही कारण था कि जब समस्त पाण्डव पांचाली के अपमान के बदले जयद्रथ के लिए युधिष्ठिर से मृत्युदण्ड माँग रहे थे, तभी द्रौपदी ने अपनी ननद अर्थात् जयद्रथ की पत्नी दुशाला के सुहाग की रक्षा करते हुए, उसे अभय दिया।
द्रौपदी अयोनिजा (जिसका जन्म स्त्री के गर्भ से न हुआ हो) थी। वह दिव्यजन्मा याज्ञसेनी थी। साँवला वर्ण होने के कारण उसे कृष्णा कहा गया। वास्तव में द्रौपदी का जन्म भी एक उद्देश्य पूर्ती के लिए हुआ, और निःसन्देह उसके पिता अपने उद्देश्य में सफल भी हुए। अर्थात् द्रौपदी लक्ष्यसाधिका भी है। सास द्वारा पञ्चगामिनी बनाए जाने पर उसने तनिक भी विरोध नहीं किया, इसका तात्पर्य यही है कि द्रौपदी सुशील और आज्ञाकारिणी थी। अपने क्रोध के बल पर द्रौपदी ने युधिष्ठिर द्वारा खोए हुए राज्य, समस्त पतियों के शस्त्र, उनका सम्मान भी वापस प्राप्त कर लेती है।

यदि समग्र में कहा जाय, तो द्रौपदी का चरित्र अनोखा है। समूचे संसार के इतिहास में उस जैसी दूसरी कोई स्त्री नहीं हुई। महाभारत में द्रौपदी के साथ जितना अन्याय होता दिखता है, उतना अन्याय इस महाकथा में किसी अन्य स्त्री के साथ नहीं हुआ। द्रौपदी संपूर्ण नारी थी। वह कार्यकुशल थी, और लोकव्यवहार के साथ घर-गृहस्थी में भी पारंगत, परन्तु द्रौपदी जैसी असाधारण नारी के बीच भी एक साधारण नारी छिपी थी, जिसमें प्रेम, ईर्ष्या, डाह जैसी समस्त नारी-सुलभ दुर्बलताएँ भरी हुई थीं।

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